ये भी विदाई और वो भी विदाईबेटी की विदाई चाहे राजस्थान के किसी गांव से हो या दिल्ली के किसी पांच सितारा होटल से, बेटी बैलगाड़ी में विदा हो या बी.एम.डब्ल्यू कार में, बाराती हाई प्रोफाइल हो या ठेठ ग्रामीण, यह सब आदमी की हैसियत का मुजायरा है। शादी के रंग-ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इन सब में एक समान बात होती है, वह है बेटी का बाप। विदाई पर गांव का रामलाल भी रोता है तो दिल्ली का सुनील भी। दोनों की मनोदशा भी एक जैसी, बेटी की शादी के बोझ से यह भी मुक्त हुआ और वह भी।अभी 29 नवंबर को दिल्ली में हमारे एक मित्र सुनील की बेटी की शादी में जाना हुआ। इस शादी ने मेरे अब तक की शादियों के अनुभवों को अपडेट कर दिया। कम मेहमान लेकिन उम्मीद से ज्यादा इंतजाम। खाने में पांच सौ से अधिक लजीज व्यजंन। स्वर्ग जैसी अनुभूति कराने वाला वर-वधू का सुसज्जित स्टेज। खाने-पीने की शाही व्यव्स्था। कहां क्या खाएं, इसका डिस्पले भी एल.सी.डी टीवी से हो रहा था। विभिन्न वैरायटी की आइसक्रीम, हर फ्लेवर का दूध, राजस्थानी, पंजाबी, साउथ इंडियन से लेकर इटेलियन व्यंजन मौजूद थे। मैंने रात को देखा, हर स्टॉल पर खाना इतना बच गया कि कोई खाने वाला नहीं था। सुनील ने बेटी को क्या नहीं दिया। ओडी कार से लेकर सबकुछ, दे भी क्यों नहीं दामाद किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े ओहदे पर है। अंत में विदाई की बेला आई तो सुनील और उसका परिवार फूट-फूट कर रो रहा था। इधर 2 दिसंबर को मेरे गांव में रामलाल की बेटी की शादी हुई। पता चला कहीं से जुगाड़ कर ढाई लाख जमा किए और मेहमान आए 2 हजार से ज्यादा। खाने में गेहूं के दलिए से बनी लापसी-कड़ी और कड़ाही की पूçड़या। दहेज के नाम पर पीतल के बर्तन एक लोहे की पेटी और मंूज की रस्सी से गूंथा हुआ एक पलंग। मेहमानों की खातिरदारी में कोई केटर्स या वेटर्स नहीं। घर के रिश्तेदार ही बारातियों को पंगत में बिठाकर परोसगारी कर रहे थे। विदाई की बेला आई तो रामलाल फूट पड़ा। बेटी के गले लग कर ऐसे रो रहा था, जैसे वो वापस कभी मिलेगी ही नहीं।शादियों के ये दो अनुभव मेरे मानस पटल पर खासा असर छोड़ गए। मैंने महसूस किया शादी में इंतजाम हैसियत के मुताबिक होते हैं, लेकिन बेटी के बाप का दिल एक ही होता है। चाहे वह कोई भी हो। दिल्ली में केटर्स और वेटर्स की व्यवस्था और गांव में रिश्तेदारों के हाथों की मीठी मनुहार। फर्क जगह और हैसियत का है।सामाजिक व्यवस्था के इस ताने-बाने में सुनील हैसियत नहीं दिखाए तो क्या करें ? और उधर रामलाल उधार लेकर बेटी के हाथ पीले नहीं करें तो क्या करें? मैं कहना यह चाहता हूं कि जितना खाना महानगरों की शादियों में बच जाता है, उसे बचा लें तो शायद किसी रामलाल को शादी के लिए उधार लेना न पड़े।अंत में एक बात और क्या फर्क पड़ता है बेटी की विदाई ट्रेक्टर की ट्राली से हो या बी.एम. डब्ल्यू कार से। एक चिड़िया यहां से भी उड़ी और एक वहां से भी.
संस्मरण मेरी बेटी की शादी 14 फरवरी, 2009 को हुई। उस वक्त हमारे मित्र कीर्ति राणा के जेहन में उनकी बेटी क्वतनूं थी जो मेरी बेटी की विदाई में अपनी बेटी की विदाई का एहसास कर रहे थे। उन्होंने दो कविताएं मुझे लिख भेजी पढ़े इन्हे
एक
बेटी को विदा करते वक्त
मां-बाप ने सिर पर हाथ फेरा
आंसुओं के साथ डोली में बिठा दिया।
संस्कारों, ममता व मर्यादा की पोटली
जीते जी कर दिया
देह-दान
हो गया
कन्यादान
दो
यहाँ वहां आंगन में फूदकती रहती थी
चिड़कली
आज लग गई है
हल्दी और मेहंदी
पहन लिए है लाज के गहने
बस फुर्र होने को है
नैन कटोरी से छलकता रहेगा पानी
छठे चौमासे ही सुनाई
देगी चिड़कली की चीं-चीं।
Tuesday, December 8, 2009
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